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प्राथमिक व्यवसाय पूर्णतः निसर्गावर अवलंबून असतात. यात मनुष्यबळ मोठ्या प्रमाणावर लागते. नैसर्गिक साधनसंपत्तीच्या उपलब्धतेनुसार निरनिराळ्या भागात वेगवेगळे प्राथमिक व्यवसाय चालतात. या व्यवसायात श्रमाच्या मानाने मोबदला कमी मिळतो.
पशुपालन
भारत में पशुपालन व्यवसाय कृषि के पूरक रूप में किया जाता है। यह पाश्चात्य देशों के वाणिज्यिक पशुपालन से सर्वथा भिन्न है। देश की दो-तिहाई कृषक जनसंख्या अपने जीविकोपार्जन के लिए गाय, बैल, भैंस आदि पालती है, जो उनके कृषि-कार्य में भी सहायक होते हैं। कुछ आदिवासी वर्ग भी पशुपालन द्वारा आजीविका प्राप्त करते हैं।
पशुपालन पर आधारित प्रमुख उद्योग दुग्ध उत्पादन या डेयरी उद्योग है। वैसे तो हमारे देश में गायों तथा भैंसों से उत्पादन विदेशों की तुलना में अल्प ही है, किन्तु देश में इनकी संख्या अधिक होने के कारण भारत 1999-2000 ई० में विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध पादक देश बन सका। वर्ष 2007-08 के दौरान 10.49 करोड़ टन दूध का उत्पादन हुआ। पशुधन से देश में 9.8 मिलियन लोगों तथा सहायक क्षेत्र में 8.6 मिलियन लोगों को नियमित रोजगार मिलता है। यहाँ राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अनुसार पिछले ढाई दशक में दुग्ध उत्पादन में तीन गुना वृद्धि हुई है। इस बोर्ड द्वारा उठाये गये कदमों ‘श्वेत क्रान्ति’ (White Revolution) या ‘ऑपरेशन फ्लड’ (Operation Flood) द्वारा ही यह सम्भव हो पाया है। देश में इस समय 7 करोड़ दुग्ध उत्पादक हैं। दूध उत्पादन में भैंसों का सर्वाधिक योगदान है। भारत में विश्व की 57% भैसें तथा 16% गायें है।
‘ऑपरेशन फ्लड’ समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम का एक अंग है। इस कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है।
(1) देश में दुग्ध-उत्पादन तथा दुग्ध उत्पादों (दही, मक्खन, पनीर, घी आदि) की वृद्धि करना।
(2) छोटे किसानों की आय में वृद्धि करना।
(3) देश में दूध के संग्रह (एकत्रण) तथा वितरण की व्यवस्था करना।
(4) ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना।
तीव्र गति से जनसंख्या में वृद्धि तथा नगरीय जनसंख्या की बढ़ती आवश्यकता को देखते हुए दुग्ध उत्पादन में और अधिक वृद्धि होनी चाहिए। इसके लिए ‘ऑपरेशन फ्लड’ कार्यक्रम को भारत के प्रत्येक राज्य में तीव्र गति से चलाना आवश्यक है।
देश में ‘श्वेत क्रान्ति’ के विस्तार की आवश्यकता को अग्रलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) देश में दुग्ध तथा दुग्ध पदार्थों की सप्लाई को सुनिश्चित करने के लिए डेरी विकास आवश्यक है।
(2) इस क्रान्ति के द्वारा लघु तथा सीमान्त कृषकों को अतिरिक्त आय की प्राप्ति होगी।
(3) पशुधन के विकास से खेतों के लिए उर्वरक तथा बायो गैस प्राप्त होगी।
(4) इस क्रान्ति से ग्रामीण जनता की निर्धनता दूर होगी तथा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास सुनिश्चित होगा।
(5) सहकारी समितियाँ दूध का संग्रहण तथा विपणन करती हैं। इससे लोगों में सहकारिता की भावना बलवती हुई है।
(6) डेरी व्यवसाय के विकास से ग्रामीण एवं शहरी नागरिकों को एक-दूसरे को समझने में पर्याप्त सहायता मिली है। इस क्रान्ति के कारण भारत विश्व का अग्रणी दुग्ध-उत्पादक देश बन गया है। भारत में पशुपालन व्यवसाय अनेक समस्याओं से ग्रस्त है, जिनमें उत्तम चारे की कमी, संक्रामक रोग तथा निम्न कोटि की नस्लें प्रमुख हैं।
भेड़ – 2003 को मवेशी गणना के अनुसार भारत में लगभग 6.147 करोड़ भेड़ें हैं। इनसे निम्न कोटि की ऊन प्राप्त होती है। औसत रूप से एक भेड़ से मात्र एक किग्रा ऊन ही मिल पाती है। भारतीय भेड़ों की नस्ल सुधारने के लिए उत्तम ऊन वाली नस्ल की मेरिनो भेड़ो का ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैण्ड से आयात किया गया है। यहाँ घटिया किस्म की ऊन प्रदान करने वाली भेड़ें आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में तथा उत्तम ऊन देने वाली भेड़ें जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश राज्यों में पाली जाती हैं। वित्तीय वर्ष 2004-05 में 500 लाख किग्रा ऊन का उत्पादन हुआ था।
बकरियाँ – भारत में लगभग 12 करोड़ (विश्व की 16-17%) बकरियाँ मिलती हैं। बकरी को ‘गरीब की चाय’ कहा जाता है। बिहार, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में बकरियाँ अधिक संख्या में पाली जाती है।
कुक्कुट-पालन – यद्यपि कुक्कट-पालन (मुर्गीपालन) भारत में प्राचीन काल से किया जा रहा है, परन्तु विगत कुछ वर्षों से कृषकों की अर्थव्यवस्था तथा भारतीय भोजन में अण्डों का महत्त्व बढ़ गया है। यहाँ 2003-04 ई० में 40.4 बिलियन अण्डों का उत्पादन हुआ है। मुर्गीपालन से ग्रामीण जनता को रोजगार भी मिलता है। अण्डा उत्पादन में भारत का विश्व में पाँचवाँ स्थान है। अंग्रेजी में इसे ‘पॉल्ट्री फार्म’ कहते हैं।
मांस उत्पादन – भारत में विभिन्न किस्मों के पशुओं से मांस प्राप्त किया जाता है। यहाँ सूअरों की संख्या 1.5 करोड़ से भी अधिक है, जो मांस के लिए पाले जाते हैं। भारत प्रति वर्ष विभिन्न पशुओं के लगभग 5 मिलियन टन मांस का उत्पादन करता है।
पशु-सुरक्षा – पशुओं के स्वास्थ्य की देख-रेख के लिए देश में बहुत बड़ी संख्या में पशु-चिकित्सालय, पशु स्वास्थ्य केन्द्र और कृत्रिम पशु-गर्भाधान केन्द्र खोले गये हैं।
पशुधन का महत्व
भारत में विश्व के सर्वाधिक पशु पाये जाते हैं। यहाँ गाय, भैंस, भेड़, बकरी, घोड़े, खच्चर, गधे, सूअर, ऊँट, याक इत्यादि पशु पाये जाते हैं, जो अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में बड़ी संख्या में मवेशी पाले जाते हैं। इन पशुओं से कृषि में बहुत सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त यातायात, दूध, मांस इत्यादि के लिए भी इनका बहुत महत्त्व है। पशुओं के गोबर से खाद, ईंधन, खालें, चमड़ा, ऊन इत्यादि पदार्थ भी प्राप्त होते हैं। पशुओं की खाले, चमड़ा तथा ऊन उपयोगी निर्यात पदार्थ हैं, जिनसे विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है साथ ही दूसरे जुड़े ऊन, जूता इत्यादि अनेक उद्योग भी विकसित होते हैं।
ऐसा अनुमान है कि लगभग 18 मिलियन लोग पशुधन क्षेत्रों में मुख्य व सहायक रूप से नियुक्त हैं। पशुधन क्षेत्रों एवं सम्बन्धित उत्पादों से निर्यात आय निरन्तर बढ़ रही है। वर्ष 2000-01 के दौरान पशुधन क्षेत्रों से कुल निर्यात का 50% तैयार चमड़ा (₹ 1,745 करोड़) और 42% (₹ 1,427 करोड़) मांस एवं मांस उत्पादनों का था।
वर्ष 2000-01 के दौरान पशुधन क्षेत्र ने 32.4 मिलियन अण्डों, 47.6 मिलियन किग्रा ऊन और 4.7 मिलियन टन मांस का उत्पादन किया। देश में मांस उत्पादन की एक विशेषता यह रही कि पॉल्ट्री उत्पादन ने, जो 5.8 से 7.0 मिलियन टन के बीच है, बकरी के मांस उत्पादन को जो 4.7 से 6.0 मिलियन टन है, पीछे छोड़ दिया है।
मत्स्य-पालन :
मत्स्य-पालन भारत के प्रमुख प्राथमिक व्यवसायों में से एक है। देश के पास 20 लाख वर्ग किमी का विस्तृत मत्स्य संग्रह क्षेत्र है, जिससे बड़ी मात्रा में मछलियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। भारत के पास विशाल मान तट, सक्रिय समुद्री धाराएँ तथा विशाल नदियाँ हैं, जो समुद्र में मछलियों को भोज्य सामग्री पहुँचाती हैं। इन अनुकूल प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण मानवीय संसाधन भारत में मत्स्य-व्यवसाय का भविष्य उज्ज्वल है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 60 लाख लोग मात्स्यिकी क्षेत्र के रोजगार में लगे हुए है।
भारत में दो प्रकार के मत्स्य संसाधन उपलब्ध हैं—आन्तरिक या ताजा मत्स्य क्षेत्र (यमुना, शारदा, गंगा आदि नदियाँ, झीलें व तालाब) तथा सागरीय मत्स्य क्षेत्र। वर्ष 1950-51 से 2000-01 की अवधि में आन्तरिक मत्स्य क्षेत्र में चौदह गुना वृद्धि हुई है, जबकि सागरीय मत्स्य क्षेत्र में पाँच गुना। मत्स्य व्यवसाय ने लोगों को रोजगार के अवसर तथा आय के साधन उपलब्ध करवाये हैं। वर्ष 2003-04 में देश को मछलियों के निर्यात से ₹ 5,739 करोड़ की विदेशी मुद्रा भी प्राप्त हुई। वर्तमान में विश्व के मत्स्य उत्पादक देशों में भारत का चौथा स्थान है। केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल प्रमुख मत्स्योत्पादक राज्य हैं।
भारत में मत्स्य व्यवसाय भी अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, जिन्हें दूर करने के लिए सरकार अनेक उपाय कर रही है। इन उपायों में मछुआरों को आर्थिक तथा वित्तीय सहायता, विशाल मत्स्य नौकाओं की व्यवस्था, मछलियों के संग्रह हेतु शीतगृहों की सुविधाएँ आदि प्रमुख हैं।
सरकार समय-समय पर पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा मत्स्य उद्योग को प्रोत्साहन देती रही है। पिछले कुछ वर्षों में मछली उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है। मछली उद्योग के वैज्ञानिक विकास तथा अनुसन्धान के लिए 1961 ई० में बम्बई (मुम्बई) एक केन्द्रीय मछली शिक्षण संस्थान खोला गया तथा समुद्री मछलियों के अध्ययन के लिए एक अनुसन्धानशाला भी स्थापित की गयी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि देश का मछली व्यवसाय धीरे-धीरे विकसित हो रहा है।